Tuesday 28 October 2014

मिट्टी मिटती नहीं!

मिट्टी मिटती नहीं
मौन सी विस्तृत बक्श पर
ज़मानों का इतिहास
लहू के अक्शरों में इसकी पन्नों पर है लिपिबद्ध

नन्हे पाँव जब चलने लगे डगमगाए,
मिट्टी कुछ कहती है धीरे से
एक और नई पीढ़ी आ गयी है मुझे सँवारने।

नई इमारतें बनेंगे , रस्ते खुलेंगे, दुकानें सजेंगे
और भी मेलें लगेंगे
लोग आते जाते रहेंगे मेरी रगंमंच की पुतला बन
कुछ देर हर्ष विषाद की छाया बन
सो जाएँगे फिर मेरी गोद में मिट्टी बन

पर समय चलता जाएगा
और मैं, न रोंऊगी ,न हँसूँगी
बस ज़िन्दगी का यह कारवाँ सजाती जाऊँगी।

एक हसीन कल्पना लिए मैं सिमट जाती हूँ कभी कभी,
कि एक दिन ऐसा आएगा
काल की गोद से कोई महान अात्मा
पाँव धरेगा धरती पर,
मिट्टी को समझेगा
दुल्हन सी उसे सजाएगा
विकसित हो जाएगा वन उपवन।

रचना: मीरा पाणिग्रही 
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क़ुबूल है, क़ुबूल है!

चाहे चले खंज़र या गोली भरमार,
बर्बाद तक वारदात हो या लम्बी खामोश जंग
हमें क़ुबूल , हमें क़ुबूल

फिर हो नशा बेहिसाब या
हम हो जाएँ बेनक़ाब ,
ख़ुदा फिर भी नज़र आये लावारिस पलों में ,
ये गुस्ताखी फिर क़ुबूल,फिर क़ुबूल

कुछ ख़ामी महसूस है
कुछ भी कभी महसूस नहीं
ये हकीकत अब साथ है
और बाकि कुछ खफीफ  है

कुछ ज़िन्दगी अभी भी बाकी है
कुछ लम्हे मेरी साथी हैं पर
साँसों के खर्च  का हिसाब
कोई खुशनुमा अलग़ से रखती है

ये कमिया ये खामियां फिर कुबूल, फिर क़ुबूल

रचना: प्रशांत पांडा 

फूल हूँ पल दो पल का






मैं फूल हूँ पल दो पल का
खिलती हूँ रात के अकेले में
ख़ुशबू बिखेर क्षण भर मात्र हवा में 
लावारिश जाती हूँ गिर फिर किसी कोने में।

कोई तो समेटे मुझे सुबह हो जाने पर
बनाए मुझे किसी माला का शोभा
अर्पण पूजा की थाली में कर
सफल करे मेरा यह छोटा सा जीवन।

मैं फूल हूँ 
धरती में समाने के लिए
कोई देखे न देखे मैं खिलती रहूँ 
किसी की यादों में ही महकूँ

चाह नहीं गर्दिश की
ना कोई गंगा की तरंग की।

रचना: मीरा पाणिग्रही 
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खामोश बानी !

चित्र साभार: www.eso-garden.com

हर चुप्पी के पीछे कोइ बात का होना ज़रूरी तो नहीं
कई सदिय़ा यूँही गुज़र गयीं बिना कुछ कहे, कुछ कहे
तुम ख़ामोशीअों में ढुढंते रहे मेरी अस्तित्व को
मैं ख़ामोश पत्थरीली आगोश में खोती गयी ,खोती गयी।

मुझे याद नहीं कब मेरे लबों की गुन गुनाहट गयी हवा में मिल
और मन की बाँसुरी स्तब्ध सी निश्चल शान्त मोहिनी हो गयी स्थिर
तुम्हें मदहोश न कर पायी मेरी मुस्कराहट की ज़ुबां
रह रह कर बहती गयी अनदेखी आँसुओं का निरझर।

अब पाषाण धरती मेरी कर रही अपेक्षा
तुम फिर सावन बन बरसाओगे मद का नशा
भीगेंगे तन मन नवीनता से रोमान्चित हो
बरसेंगे बादल फिर गायेंगे वन के पपीहा
अहल्या बन जाऊँ मैं किसी महान स्पर्ष पा
अनगिनत सुरों से सथ्मभित हो जाएगा आसमान।

रचना: मीरा पाणिग्रही 
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Sunday 26 October 2014

फिर वही बात !




चित्र साभार : www.shutterstock.com 



सियाही और सुराही जो साथ साथ चले ,
ख्वाइशें पर्दों में वाह वाह जो मिले, 
इशारे हमराही न समझ पाएं ,
उनकी नासमझी की  तारीफ़ हम भी करें I

जितने हमराज़ हमारे ,दुसरे आहें भरें,
तमन्ना रहे बाकी, खाली खाली रहे सुराही, 
जैसे रात बिना चाँद, 
हम उस रात की हम क्या बात करें I 

थोड़े से ऐतबार की जो बात करें, 
हमनाज़  भी ऐतराज़ ही करें I 

ख्वाब जो बार बार निखरे इन पैमानों पे वो नाज़ न करें,
की ख़्वाब की ज़िन्दगी पैमानों में मय के थमने भर है I

मुसाफिर अशिआना तलाशने जो चला, 
अपनी महफ़िल को भी टांग काँधे चला I

आँखों के प्यालों में हमें जीने दो,
साथ साकी को भी आप आने दो ,
आज सियाही और सुराही को मिल जाने दो,
आज दिल को जिगर में पिघल जाने दो I

रचना: प्रशांत पांडा 

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Friday 24 October 2014

कुछ ख्वाब अधूरे से...



चित्र साभार: गूगल 




कुछ ख्वाब अधूरे से बार बार दिखे,
जो हमनाक़ाब हैं,वो कभी कभार दिखे I 
जो हमें रूह में सजाये हुए हैं,
उनको ये उनकी सौतन ही दिखे I 

ख्वाइशें आज भी अजनबी सी खींचे,
हमजान जो ये मुस्कुरा के कहें की, 
दिलफ़ेंको के शहंशाह हो तुम,
तो लो ये ताज महल हुआ तुम्हारा करो ना गम I 

वरना हम लाखों में एक आज भी हैं,
हम पे मरने वाले ज़िंदा आज भी हैं,
हम कहें सुनो वो मेरी हमनाम,
ये शाम होगी एक अजनबी के नाम I

रचना: प्रशांत पांडा 

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क्यूंकि रास्ते बनते हैं चलने से...


चित्र साभार: गूगल

इतने भी नासमझ नहीं हैं हम
की रेत से पानी की उम्मीद करेंI

प्यास लगी तो  आंसू से काम चला लिया
हर लम्हे को अनगिनत सांसो से भर लियाI

क्यूंकि रास्ते  बनते हैं चलने से,हार के बैठने से किस्मत नहीं संवरती

रचना: मीरा पाणिग्रही 

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समंदर के आगोश में...



चित्र साभार: http://www.verandabeach.com/


समंदर के आगोश में शाम था,
लबों के आगोश में ज़ाम थाI

एक नहीं था तो तू मेरे पास,
पर ज़िंदा था मेरी साँसों में तेरा एहसासI

उस शाम का एक अंजाम था,
पर ख़ुदा पे भी एक इल्ज़ाम थाI

शीशा था मेरे लबों के करीब,
पर तू था मुझसे जुदा... कुछ अजीबI

चाँद तारों के पास उनका आसमान था,
मेरी ख्वाइश था  तू पर तेरी नज़रों में एक फरमान थाI

ज़िन्दगी अगर तू मुझमें अभी भी है ज़िंदा ,
तो बता वो मुझसे बिछड़ जाए, क्या ऐसा मेरा गुनाह थाI

दोस्तों मेरा जिक्र जब भी करना तो,
कहना उसकी इबादत ही मेरा इनाम थाI

समंदर के आगोश में शाम था,
लबों के आगोश में ज़ाम थाI

रचना: प्रशांत पांडा 

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सोने की कहानी!



चित्र साभार: गूगल 


चलो सोने की कहानी को परदे पे लाते हैं ,
जिसके दम से बाजार में दम है, उसकी कहानी सुनते हैंI

जिसे पेट्रोल  की कीमत बढ़ने पे गुरूर है,
जिसे बाजार बेहाल में सुरूर है ,
और जिसके रखनेवाले समय के हुज़ूर हैंI

चलो उस सोने की कहानी परदे पे लाते हैं,
जिसके दम से बाजार में दम है, उसकी कहानी सुनते हैंI

रचना: प्रशांत पांडा 

हम तो राही हैं!


करना क्या अगर बात न बन पायी ,
हम तो राही हैं , लौट जायेंगेI
चोट़ लगने पर मन को समझा लेंगे,
रूह पर कोई ख़राश न आने देंगेI
ख़ुदा जाने क्यों तसल्ली कर लेते हैं हम ,
जब कि सुकून मेरी िफतरत में लिखी ही नहीं थीI


रचना: मीरा पाणिग्रही