Sunday 23 November 2014

हर एहसास को ऐसे ही क़बूल करो...



हर एहसास को ऐसे ही क़बूल करो
न समझने की कोशिश करो
न उसे नाम दो कोई
बस साँसों से महसूस करो
और फिर जिगर से बह जाने दो।

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रचना: प्रशांत 

वो ही ज़न्नत बनाते गए...

जिस्म न सही पर आवाज़ तो बुलंद है,
वक़्त ना सही पर इरादे तो बुलंद हैं I 

क्या हुआ,नहीं हुआ,
इस सोच से वो आगे बढ़ते गए,
खुद खड़े ना हो पाये,
पर कितनो की मंज़िलें बनाते गए I 

वो लुटाते गए और लूट भी गए,
पर हां वो ही ज़न्नत बनाते गए I 
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रचना: प्रशांत 

Saturday 22 November 2014

बंद कर ये रिवाज़!

बंद कर ये रिवाज़,
ये श्राद्ध का रिवाज़,
ये रोने का रिवाज़,
ये दिखावे का रिवाज़ I

माला मुझे भारी लगे ,
तस्वीर तक़दीर से अलग लगे ,
के ऎसे मैं अलग हुआ,
कल का सच अब झूठ हुआ I

अस्तित्व को मिट जाने दे,
मुझे आज़ाद हो जाने दे,
मेरी मौत मुझे दे दे
जो आये ना आये
वो जीवन अपना ले I
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रचना: प्रशांत 

Wednesday 19 November 2014

The Intruders



In the morning when the sun is a little late in coming
And clouds hang low as though mourning
Rays peep a bit disappointingly
And it is time for the first sip
With gossip exchanges done leisurely .

Then intruder birds come inquiringly
Crows, sparrows, black , brown and grey...
From their night rests in some far away tree
For crumbs and left overs thrown intermittently.

They caw and squeak asking 
And stir the mild morn with their cajolings
They tell us the world is coming in 
To give updates about the latest happenings.

Gossamery moments slip off like dew
It is time to wish haziness adieu 
To wander along with the swell
Of crowds and kin out to splay
Life and labour into their work and play.

By: Meera Panigrahi

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Monday 17 November 2014

शौच समस्या,विकट समस्या ...

शौच इस देश की है एक बड़ी समस्या
जाने कैसे लोग बैठ जाते हैं जहाँ तहाँ
गली नुक्कड़ में , यहाँ वहाँ , कहाँ कहाँ
रेलवे के किनारे किनारे, नदी नालाओं के धारे
खेत खलिहानों में, नगर नगर में।

यह प्रॉबलेम बड़ी ही गम्भीर है
नयी नवेली दुल्हन पर यह भारी है
कहाँ जाए घुन्घट ओढ़ , सुबह की घड़ियों में
सारी कायनात से नज़र चुरा
कहाँ बैठ जाए वह ख़ुद को हल्का करने
न कोई जगह है सुरक्षित , न कोई जहान
न कोई अपना जिसे वह हाले दिल करे बयान।

रात के घने अन्धेरे में बुढ़ापे के दौर में
जब सासुमां उठती है
डगमगा जाते हैं पैर बाहर जाने को
बच्चे बैठ जाते हैं आँगन में ही पेट साफ़ करने को
और गंदगी फैल जाती है मक्खी मच्छर को न्योता देने को
फिर मलेरिया , दस्त , खाँसी बुखार के आने जाने को
अर्थिआं उठेंगे शमशान को जाने को
शर्मशार होगा देश देख यह नज़ारे को।

बात इतनी ही थी बस एक सौचालय की
न इमारतों की न कि ऊंची ऊँची महलों की
घर मकान बना लेते हैं बड़े बड़े
रस्ते , मॉल खड़े हो जाते हैं पल भर में
पर बात जब आती है सौच की
तब आ जाती है याद परम्परा की
खुले में आसमान के नीचे ,
प्रकृति की गोद में बैठ जाने की शान की।



इज़्ज़त इज़्ज़त हम करते हैं,
जिनके लिए हम जीते मरते हैं,
एक भोर सुहानी उनकी भी हो,
एक बार आसानी उनकी भी हो I
                           
क्या हम ऐसा कर नहीं सकते,
जो जा सकते है मंगल को वो,
क्या अपनों का मंगल कर नहीं सकते?

गिद्ध फिरते हैं मुँह में लार लिए,
देखने को एक जिस्म आकर लिए I

वो नोंच लेते हैं  जिस्म और छोड़ देते हैं पिंजर
वो कांपती रहती है जीवन भर थर थर  I

गुनाह बस एक की पूरा करनी थी उसे भोर की ज़रुरत,
पर बन गयी वो किसी के भोग की मशक्कत  I

सीता, राधा, दुर्गा... न जाने कितने रूपों में,
हम करते हैं इनकी पूजा ,
पर जब सवाल आये हमें इनको असली देने का सम्मान ,
हम झाँकने  लगते हैं बगले और चल देते हैं अपनी दूकान I

हम बोलते हैं दिन भर ,ये होना चाहिए ,
हम सुनते हैं दिन भर, वो होना चाहिए ,
पर जिसके लिए होना चाहिए क्या सुनते हैं हम उसकी,
वो रहती है चुप पर बोलती है उसकी सिसकी I

पूछती है वो हमसे की ये विद्वानो का देश,
भूल गया कैसे वो अपने माताओ बहनो को,
भूल गया कैसे वो उनके रहने सहने को,
भूल गया  कैसे वो की बाकि अभी बहुत कुछ है करने को I


अगर स्वच्छ भारत की है संकल्प
पूरा करना हो अगर स्वप्न नव जागरण की
तो बना डालो सौचालय घर घर , डगर डगर
स्वर्ग बन जाए देश यह महान भविष्य में
स्वच्छता का पाठ यह सब को है पढ़ना
सौचालयों की ज़रूरत है देश को आगे बढ़ाने को।

डोमेक्स ने है एक अभियान चलाया,
आओ उसे बढ़ावा दें हम,
डोमेक्स ने है एक बीड़ा उठाया,
आओ उसके साथ चलें हम I


रचना : मीरा पाणिग्रही एवं प्रशांत 

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एक शाम गुज़रती नहीं...

एक शाम गुज़रती नहीं, 
एक साल  गायब हो जाती है I 
तेरे इंतज़ार में ऐ सनम, 
उमर बिन गिने  हीं बीत जाती है I 

मेहबूबा हज़ारों हमने देखे, 
पर न ज़ुल्फ़ बदल बने, 
न आँखे काजल बने ,
न खूशबू हीं रूह में झलके I 

उस रात के राख की रेत मुट्ठी में है ,
मुहब्बत के अंगार आँखों में,
पर तुम्हारा नशा मेरी साँसों में आज भी ज़िंदा है
ऐसे जैसे धड़कता है दिल सीने में I

रचना: प्रशांत 

Friday 14 November 2014

बात एक पान की थी

बात एक पान की थी,
बात किसी की शान की थी I

कभी प्यार की तो कभी प्यास की,
शौक के शौक़ीन हम भी हैं I
निकल पड़े हम अल सुबह,
अपने शौक में डूबने को I

हमें शौक हैं ख़ुद को नरगिसी सुबह में डूबोने का ,
हमें शौक हैं ख़ुद को गीले ओस में भिगोने का I

सुबह की ताज़गी छांट रही थी हमारी खुमारी ,
हम नापते थे पगडण्डी जैसे काठ काटती हैं आरी I

ज्यूँ हीं हमने एक कदम था और बढ़ाया ,
एक रंगीन सा चेहरा हमारे आगे लहराया I

मुँह में था उनके पान, और पीछे खड़ी थी एक फ़ौज़ ,
जो थी उनकी शान I

उनकी नवाबी ठाट देखकर हम जान गए उनकी पहचान ,
हम बोल चाल की भाषा में नेताजी कहके देते हैं उनको मान I

जैसे हीं एक गिलौरी ने अपना समय पूरा किया,
दूसरी गिलौरी पेश करने का आया फरमान I

पान की डिब्बी ख़ाली, नेताजी देंगे गाली,
चमचों के सूख गए प्राण , फिर आया एक ज्ञानी चमचे को ध्यान ,
पास के मोहल्ले में बसती हैं एक पान की दुकान,
वो भगा जैसे भागता है तूफ़ान I

इस बीच नेताजी के मुँह की होली थी सूखी,
चमचों की सांस थी अटकी जब नेताजी ने अपनी दांत थी भिंची I

सभी कर रहे थे प्रार्थना ,कहीं झेलीं न पड़े यातना I

इतने में आ गया तूफ़ान लिए हाथ में पान I

नेताजी की बांछें खिल गयी, चमचों को भी सांसें मिल गई I

दांत ने कचरा पान को, जैसे सुबह ने पछड़ा शाम को ,
चमचों ने याद किया राम को , हम चल पड़े अपने काम को I

बात एक पान की थी,
बात किसी के शान की थी I

रचना : प्रशांत

Light a lamp!

To dispel the gloom in the corner of your heart,
Light a lamp of joy.

To dispel the anger smouldering in your veins,
Light a lamp of love.

To dispel the ignorance from your mind,
Light the lamp of wisdom.

To dispel the loneliness that surrounds you,

Light the lamp of friendship.
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By: Meera Panigrahi

Saturday 8 November 2014

कुछ रात की बात करें !

धुँधली सी तस्वीर और हल्की  सी आवाज़, 
कभी सोने न दे मुझे नींद में, 
वक़्त खामोश और नज़र खुली है ,
कुछ मौत और कुछ ख्वाब के इंतज़ार में I 

हलकी सी छुअन जो आधी महसूस हो ,
और दर्पण जो कफ़न धीरे से हटाये, 
तस्वीर फिर भी आधी सी दिखे ,
खामोश इशारे समझ ना पाएं I 

शाम डूबे अपनी ही रंग में ,
रात बताये एक अलग सी पहचान ,
सांस कुछ बाकी , धीमी है नज़र ,
पर न खत्म हो इस राज़ का सफर I 

रचना : प्रशांत पांडा